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हि॒र॑ण्यपाणिः सवि॒ता सु॑जि॒ह्वस्त्रिरा दि॒वो वि॒दथे॒ पत्य॑मानः। दे॒वेषु॑ च सवितः॒ श्लोक॒मश्रे॒राद॒स्मभ्य॒मा सु॑व स॒र्वता॑तिम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiraṇyapāṇiḥ savitā sujihvas trir ā divo vidathe patyamānaḥ | deveṣu ca savitaḥ ślokam aśrer ād asmabhyam ā suva sarvatātim ||

पद पाठ

हिर॑ण्यऽपाणिः॑। स॒वि॒ता। सु॒ऽजि॒ह्वः। त्रिः। आ। दि॒वः। वि॒दथे॑। पत्य॑मानः। दे॒वेषु॑। च॒। स॒वि॒त॒रिति॑। श्लोक॑म्। अश्रेः॑। आत्। अ॒स्मभ्य॑म्। आ। सु॒व॒। स॒र्वऽता॑तिम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:54» मन्त्र:11 | अष्टक:3» अध्याय:3» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:5» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब विद्वान् के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सवितः) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के दाता (सुजिह्वः) सुन्दर जिह्वायुक्त (पत्यमानः) पति के सदृश आचरण करते हुए ! आप (दिवः) बिजुली आदि के (विदथे) विज्ञान और (देवेषु) पृथिवी आदिकों में (हिरण्यपाणिः) हस्त के सदृश तेज से युक्त (सविता) सूर्य्य के सदृश (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये जिस (सर्वतातिम्) सम्पूर्ण ही (श्लोकम्) वाणि का (अश्रेः) आश्रय करिये उसको (च) और (आत्) अनन्तर (आ) सब ओर से (त्रिः) तीन बार (आ, सुव) उत्पन्न करो ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य लोकों का अधिष्ठाता है, वैसे ही विद्वान् सबका अध्यक्ष होवे ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे सवितस्सुजिह्वः पत्यमानस्त्वं दिवो विदथे देवेषु हिरण्यपाणिः सवितेवाऽस्मभ्यं यं सर्वतातिं श्लोकमश्रेस्तं चादा त्रिरा सुव ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यपाणिः) पाणिरिव हिरण्यं तेजो यस्य सः (सविता) सूर्य्यः (सुजिह्वः) शोभना जिह्वा यस्य सः (त्रिः) त्रिवारम् (आ) समन्तात् (दिवः) विद्युदादेः (विदथे) विज्ञाने (पत्यमानः) पतिरिवाचरन् (देवेषु) पृथिव्यादिषु (च) विद्वत्सु (सवितः) परमैश्वर्यप्रद (श्लोकम्) वाचम् (अश्रेः) आश्रय (आत्) आनन्तर्ये (अस्मभ्यम्) (आ) (सुव) जनय (सर्वतातिम्) सर्वमेव ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्य्यो लोकानामधिष्ठाता वर्त्तते तथैव विद्वान् सर्वेषामध्यक्षो भवेत् ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य गोलांचा अधिष्ठाता आहे तसेच विद्वानाने सर्वांचे अध्यक्ष बनावे. ॥ ११ ॥